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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


झाँकी मुंशी प्रेम चंद
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सहसा मेरे मित्र पंडित जयदेवजी ने द्वार पर पुकारा- अरे, आज यह अंधेरा क्यों कर रखा है जी? कुछ सूझता ही नहीं। कहाँ हो?
मैंने कोई जवाब न दिया। सोचा, यह आज कहाँ से आकर सिर पर सवार हो गये।
जयदेव ने फिर पुकारा- अरे, कहाँ हो भाई? बोलते क्यों नहीं? कोई घर में है या नहीं?
कहीं से कोई जवाब न मिला।
जयदेव ने द्वार को इतनी जोर से झँझोड़ा कि मुझे भय हुआ, कहीं दरवाजा चौखट-बाजू समेत गिर न पड़े। फिर भी मैं बोला नहीं। उनका आना खल रहा था।
जयदेव चले गये। मैंने आराम की साँस ली। बारे शैतान टला, नहीं घंटों सिर खाता।
मगर पाँच ही मिनट में फिर किसी के पैरों की आहट मिली और अबकी टार्च के तीव्र प्रकाश से मेरा सारा कमरा भर उठा। जयदेव ने मुझे बैठे देखकर कुतूहल से पूछा- तुम कहाँ गये थे जी? घंटों चीखा, किसी ने जवाब तक न दिया। यह आज क्या मामला है? चिराग क्यों नहीं जले?
मैंने बहाना किया- क्या जाने, मेरे सिर में दर्द था, दुकान से आकर लेटे, तो नींद आ गयी
‘और सोये तो घोड़ा बेचकर, मुर्दों से शर्त लगाकर?’
‘हाँ यार, नींद आ गयी।’
‘मगर घर में चिराग तो जलाना चाहिए था या उसका रिट्रेंचमेंट कर दिया?’
‘आज घर में लोग व्रत से हैं । हाथ न खाली होगा।’
‘खैर चलो, कहीं झाँकी देखने चलते हो? सेठ घूरेमल के मंदिर में ऐसी झाँकी बनी है कि देखते ही बनता है। ऐसे-ऐसे शीशे और बिजली के सामान सजाये हैं कि आँखें झपक उठती हैं। सिंहासन के ठीक सामने ऐसा फौवारा लगाया है कि उसमें से गुलाबजल की फुहारें निकलती हैं। मेरा तो चोला मस्त हो गया। सीधे तुम्हारे पास दौड़ा चला आ रहा हूँ। बहुत झाँकियाँ देखी होंगी तुमने, लेकिन यह और ही चीज है। आलम फटा पड़ता है। सुनते हैं दिल्ली से कोई चतुर कारीगर आया है। उसी की यह करामात है।’
मैंने उदासीन भाव से कहा- मेरी तो जाने की इच्छा नहीं है भाई! सिर में जोर का दर्द है।
‘तब तो जरुर चलो। दर्द भाग न जाय तो कहना।’
‘तुम तो यार, बहुत दिक करते हो। इसी मारे मैं चुपचाप पड़ा था कि किसी तरह यह बला टले; लेकिन तुम सिर पर सवार हो गये। कह दिया- मैं न जाऊँगा।
‘और मैंने कह दिया- मैं जरुर ले जाऊँगा।’
मुझ पर विजय पाने का मेरे मित्रों को बहुत आसान नुस्खा याद है। यों हाथा-पायी, धींगा-मुश्ती, धौल-धप्पे में किसी से पीछे रहने वाला नहीं हूँ लेकिन किसी ने मुझे गुदगुदाया और परास्त हुआ। फिर मेरी कुछ नहीं चलती। मैं हाथ जोड़ने लगता हूँ घिघियाने लगता हूँ और कभी-कभी रोने भी लगता हूँ। जयदेव ने वही नुस्खा आजमाया और उसकी जीत हो गयी। संधि की वही शर्त ठहरी कि मैं चुपके से झाँकी देखने चला चलूँ

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